ISRO ने रचा इतिहास, सबसे भारी रॉकेट की सफलतापूर्वक लॉन्चिंग
ISRO ने रचा इतिहास, सबसे भारी रॉकेट की दूसरे स्टेज में लिक्विड फ्यूल इंजन का इस्तेमाल होता है। लिक्विड फ्यूल के जलने, यानी दूसरी स्टेज पूरी होते ही ये हिस्सा भी रॉकेट से अलग हो जाता है।तीसरे और आखिरी स्टेज में क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल होता है, जो स्पेस में काम करता है। इसे क्रायोजेनिक स्टेज भी कहते हैं। क्रायो शब्द का मतलब होता है बेहद कम तापमान। यानी ऐसा इंजन, जोकि बेहद कम तापमान पर काम करे उसे क्रायोजेनिक इंजन कहते हैं।क्रायोजेनिक इंजन में फ्यूल के रूप में लिक्विड ऑक्सीजन और लिक्विड हाइड्रोजन का इस्तेमाल होता है। इसे क्रमश: – 183 डिग्री और -253 डिग्री सेंटीग्रेड पर स्टोर किया जाता है। इन गैसों को लिक्विड में बदलकर उन्हें जीरो से भी कम तापमान पर स्टोर किया जाता है। रूस, जापान जैसे कुछ चुनिंदा देशों के पास ही थी। भारत नेक्रायोजेनिक इंजन बनाने की कोशिशें 1980 के दशक में शुरू की थीं। इसके लिए भारत ने रूस के साथ समझौता किया था। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका के दबाव की वजह से 1993 में रूस ने भारत को क्रायोजेनिक इंजन की टेक्नीक देने से इनकार कर दिया।अमेरिका का कहना था कि भारत क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल मिसाइल बनाने में करेगा। दरअसल, अमेरिका समेत कुछ ताकतवर देश नहीं चाहते थे कि भारत क्रायोजेनिक इंजन की टेक्नीक हासिल करके अरबों डॉलर के स्पेस साइंस फील्ड में कदम रख पाए। क्रायोजेनिक इंजन से ज्यादा वजनी सैटेलाइट की लॉन्चिंग आसान हो जाती है।बड़े देशों के टेक्नीक देने से मना करने के बाद भारत ने 1994 में क्रायोजेनिक इंजन बनाने का कार्यक्रम शुरू किया था। करीब 20 साल बाद 2014 में क्रायोजेनिक इंजन लगे रॉकेट की पहली सफल उड़ान के साथ ही भारत ये टेक्निक हासिल करने वाले दुनिया के टॉप-6 देशों में शामिल हो गया।भारत हमेशा से कहता रहा है कि वह क्रायोजेनिक टेक्निक का इस्तेमाल सैन्य क्षेत्र में नहीं करेगा। उसने इस बात को निभाते हुए अब तक इसका इस्तेमाल केवल स्पेस तक ही सीमित रखा है।